(This article is contributed by my wife, with inputs which we discussed together.)
सारांश
भाषा मानव सभ्यता का अभिन्न अंग है और राष्ट्र को एक पहचान देती है। राष्ट्रभाषा राजनैतिक, आर्थिक एवं सामाजिक दृष्टि से राष्ट्र को सुदृढ़ बनाती है और उसकी एकता एवं अखण्डता को अक्षुष्ण रखने में सहायता करती है।
परंतु, भारत में जो कि विविधताओं का देश है, उसमें एक राष्ट्रभाषा एक जटिल मुद्दा है। राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी के समक्ष कई चुनौतियाँ हैं, इसलिए भारतीय संविधान राष्ट्र भाषा नहीं अपितु राजकीय भाषाओं की बात करता है और हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित करने के लिए प्रोत्साहित करता है।
कुछ आधुनिक तकनीकि, संचार माध्यमों एवं नये साहित्य से हिन्दी के राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित होने के नए आयाम खुले हैं जो वास्तविकता में भविष्य में हमें एक राष्ट्रभाषा दे सकते हैं।
परिचय
भाषा मानव सभ्यता में एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है। यह अपने विचारों, चिंतन, आवश्यकताओं एवं भावों को शब्दों में परिवर्तित करने का साधन है जो एक सामाजिक जीवन जीने के लिए अत्यंत आवश्यक है। भाषा के माध्यम से मानव ने सामाजिक जीवन की शुरुआत की और इससे “मानव-सभ्यता” के विभिन्न चरणों का आरंभ हुआ।
इस तरह से भाषा मानव-जीवन का अभिन्न अंग हो गई। जन्म के बाद व्यक्ति अपनी मातृभाषा को अपने परिवार एवं समुदाय के द्वारा प्राकृतिक रूप से सीखता है और इस तरह से भाषा उसकी पहचान का एक अभिन्न अंग बन जाती है। यह भाषा व्यक्ति को उसके परिवार, समुदाय, समाज एवं कई मायनों में उसके राष्ट्र की पहचान से जोड़ती है। प्रत्येक भाषा का एक इतिहास होता है जो उस देश एवं देशवासियों के सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक इतिहास से जुड़ा हुआ होता है जैसे कि – वर्तमान भारतीय भाषाओं का विकास प्राचीन आर्यन संस्कृत एवं द्रविण तमिल-ब्राह्मी से हुआ है जिनके मध्य भी परस्पर आदान-प्रदान हुआ जो विविधता में भी एकता का परिचायक है।
राष्ट्रभाषा एवं उसकी महत्ता
आधुनिक राष्ट्र-राज्य में भाषा एक महत्वपूर्ण सूत्र है जो उस राष्ट्र के लोगों को एक सूत्र में जोड़ता है। एक राष्ट्रभाषा एकता को बढ़ाती है, देशवासियों के मध्य विचारों के आदान-प्रदान, को प्रोत्साहित करती है और समुचित आर्थिक विकास एवं सुचारू राज-व्यवस्थता के लिए भी जरूरी होती है। 19 वीं शताब्दी से राष्ट्रभाषा ने एक राजनैतिक विचारधारा का स्वरूप धारण कर लिया और संपूर्ण विश्व में राष्ट्रभाषा के आधार पर आधुनिक राष्ट्र-राज्यों का गठन होने लगा। यूरोप इसका एक उदाहरण है जहाँ 19वी शताब्दी में बड़े-बड़े मध्यकालीन साम्राज्य आँस्ट्रो-हंगेरियन साम्राज्य, तुर्क साम्राज्य कई आधुनिक राष्ट्रराज्यों में तब्दील हो गये और यह प्रक्रिया आज तक कई देशों में जारी है जहाँ एक से अधिक भाषायें बोली जाती हैं।
डा. अंबेडकर ने भी एक राष्ट्रभाषा की महत्ता को भारत के परिप्रेक्ष्य में समझा और कहा कि – “स्वतंत्र राष्ट्रीयता और स्वतंत्र राज्य के बीच में एक सकरी सड़क ही होती है। भाषा के आधार पर राज्यों का विभाजन उचित तो है किंतु यही भाषा उनको एक स्वतंत्र राज्य में विकसित करने में सक्षम है।”
संक्षेप में राष्ट्रभाषा के निम्नलिखित फायदे होते हैं:-
- यह देश को एक पहचान देती है।
- यह देश को एक सूत्र में पिरोने में मदद करती है।
- यह सुचारू राज-व्यवस्थता को चलाने में मदद करती है।
- राष्ट्रभाषा देशव्यापी विचारों के आदान-प्रदान में सहायक होती है।
- एक भाषा आर्थिक रूप से भी लाभकारी होती है क्योंकि इससे अंतर्देशीय व्यापार में सहायता होती है और विदेशी व्यापारियों को केवल एक ही भाषा सीखनी पड़ती है।
- एक राष्ट्रभाषा सामाजिक एवं राजनीतिक समरसता को बढ़ाती है।
किंतु राष्ट्रभाषा ही केवल राष्ट्रीय एकता के लिए जरूरी नहीं है और भारत इसका एक उदाहरण है।
राष्ट्रभाषा भारत के परिप्रेक्ष्य में :-
भारत एक राष्ट्र-राज्य नहीं अपितु राज्य-राष्ट्र है अर्थात् इसमें कई सारी राष्ट्रीयतायें मिलकर भारतीय राष्ट्रीयता का समन्वय करती हैं, ऐसा इसलिए क्योंकि भारत विविध धर्मों, पंथों, भाषाओं, रीति-रिवाजों इत्यादि का अदभुद संगम है। भारत की एकता का कारण ऐतिहासिक, धार्मिक, आत्मिक समरूपता में है जहाँ उसने हर धर्म, पंथ, समुदाय को अपना कर अपनी संस्कृति में ढाल लिया और साथ में विभिन्न समुदायों, भाषाओं को पनपने व विकसित होने का अवसर भी दिया। भारतीय संस्कृति को कुछ शब्दों में व्यक्त करना हो तो हम कह सकते हैं “वसुधैव कुटुम्बकम्”। भारत में जहाँ हर कोई भारतीय है तो वहीं गुजराती, तमिल, कन्नड़ इत्यादि भी हैं इसलिए स्वाधीनता के पश्चात्, जब 1956 में भाषीय राज्य गठित किये गये तो इस कदम ने भारतीयता को सुद्ढ़ ही किया जैसा कि अब तक का अनुभव बताता है। इसलिए राष्ट्रभाषा का मुद्दा भारत राष्ट्र के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण किंतु जटिल मुद्दा है । भारत में कुल 22 भाषाओं को राजकीय दर्जा प्राप्त है जबकि 2011 जनगणना के अनुसार भारत में 1635 भाषायें हैं और जो 10,000 या अधिक जनसंख्या के समुदाय द्वारा बोलीं जातीं हैं। अधिकतर भाषाएँ दो भाषा – परिवारों से संबंधित हैं –
- भारतीय आर्य भाषा समूह – हिन्दी, उड़िया, गुजराती, मराठी इत्यादि।
- द्रविण भाषा समूह – कन्नड़, तेलुगु, तमिल, मलयालम आदि।
कुछ भाषायें जो उत्तर-पूर्व व केन्द्रीय भारत के कुछ कबीलों में बोलीं जातीं हैं, वे अन्य भाषा समूहों से संबंधित हैं। अतः राष्ट्रभाषा का दर्जा एवं उसका निष्पादन एक जटिल मुद्दा है जिसका स्वयं का एक इतिहास है। राष्ट्रभाषा के स्वरूप, उसकी चुनौतियों व संभावनाओं को समझने के लिए इसका अध्ययन आवश्यक है ।
भारत में राष्ट्रभाषा का ऐतिहासिक विकास एवं संवैधानिक स्थिति
स्वतंत्रता प्राप्त करने के पश्चात् विभाजन की स्मृतियों, ब्रिटिश राज के समय में अंग्रेजी के प्रभुत्व एवं भारत के इतिहास में कई सारे राज्यों के होने व उनमें परस्पर ईर्ष्या व संघर्ष की स्मृतियों के कारण भारत के संविधान निर्माताओं की मुख्य चिंता भारत की संप्रभुत्ता, एकता एवं अखण्डता को सुरक्षित रखना और उसकी लोकतांत्रिक व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाना था। अतः राष्ट्रभाषा का होना जरूरी समझा गया और उसके लिये कई सारे विकल्पों को सुझाया गया। सबसे मजबूत पक्ष “हिन्दी” का था जो सर्वाधिक जनसंख्या द्वारा बोली जाने वाली भाषा थी। वहीं नेहरू जी व गांधी जी “हिन्दुस्तानी” को राष्ट्रभाषा का दर्जा देना चाहते थे जो हिन्दी व उर्दू का अदभुद संगम थी व सामान्य बोलचाल की भाषा थी। वहीं कुछ लोग अंग्रेजी को, तो कुछ संस्कृत को राष्ट्रभाषा बनाना चाहते थे। दक्षिणी राज्यों व अन्य राज्यों ने इसका पुरजोर विरोध किय़ा जिसके कई राजनैतिक,सामाजिक एवं आर्थिक कारण थे। अन्ततः इसका अस्थाय़ी समाधान य़ह निकाला गय़ा कि “हिन्दी, अंग्रेजी” को राजकीय भाषा का दर्जा दिया गया एवं त्रिभाषीय शिक्षा व्यवस्था को प्रोत्साहन देने की बात की गयी। राज्यों को अपनी मातृभाषा को राजकीय भाषा घोषित करने की स्वायत्तता दी गयी। भारत सरकार एवं राज्यों की सरकार के बीच संचार के लिए हिन्दी एवं अंग्रेजी का उपयोग सुनिश्चित किया गया।
यह व्यवस्था 1952 – 65 के बीच अस्थायी रूप से संविधान में भी किंतु 1960 के दशक में दक्षिणी राज्यों में व्यापक एवं हिंसक हिन्दी विरोधी प्रदर्शनों के बाद इंदिरा गांधी ने इसे स्थायी व्यवस्था में परिवर्तित कर दिया। फिर भी संविधान (धारा 351 के अनुसार) यह आदेश देता है कि हिन्दी की स्वीकार्यता का निरंतर प्रयास किया जाये और उसको सरल एवं हर क्षेत्र में उपयोग करने के लिए विकसित किया जाये ताकि वह समय आने पर राष्ट्र भाषा का दर्जा प्राप्त कर सके।
हिन्दी के समक्ष राष्ट्रभाषा के रूप में चुनौतियाँ –
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में हिन्दी अभी भी राष्ट्रभाषा के दर्जे से बहुत दूर है और इसके समक्ष कई चुनौतियाँ हैं जिसके पहले की हिन्दी एक राष्ट्रभाषा बन सके।
हिन्दी को तकनीकी भाषा के रूप में उपयोग करने में कठिनता-
भारतीय भाषाओं, हिन्दी के अलावा भी, को तकनीकी क्षेत्रों में उपयोग करने में अनुपयुक्त देखा गया है जो कि एक चुनौती है क्योंकि तकनीकि विकास मुख्यतः पश्चिमी देशों में हुआ
है अतः पश्चिमी भाषाओं के शब्द ही मुख्यतः विज्ञान एवं तकनीकि के क्षेत्र में प्रयोग किये जाते हैं। उनका भारतीयकरण व हिन्दी अनुवाद कठिनता को बढ़ाये बिना एक बड़ी चुनौती है।
बढ़ती हुई क्लिष्टता –
स्वतंत्रता के पश्चात्, हिन्दी को शुद्ध करने एवं संपूर्ण भाषा बनाने के उत्साह में उसका संस्कृतीकरण आरंभ हो गया। कई सामान्य उपयोग के शब्द जो विभिन्न लोक भाषाओं, अन्य भाषाओं, उर्दू के लिये गये थे, उनका तिरस्कार किया जाने लगा, जिससे हिन्दी की कठिनता बढ़ती गई और वह सामान्य लोगों की जनभाषा से दूर होती गयी। इसका लाभ अंग्रेजी ने उठाया।
अंग्रेजी भाषा की चुनौती –
वैश्वीकरण के इस दौर में अंग्रेजी का प्रभाव बढ़ता जा रहा है। यह एक तकनीकी भाषा के रूप में विश्व की सभी भाषाओं को चुनौती दे रही है। इसके अलावा भारत की राजकीय भाषा, अंतर्राष्ट्रीय एवं मध्यस्थ भाषा के रूप में भी इसका उपयोग बढ़ता जा रहा है। आर्थिक विकास की आवश्यकताओं के कारण अंग्रेजी की मांग बढ़ रही है क्योंकि उभरते हुए नये सेवा-उद्योग अंग्रेजी का भरपूर उपयोग कर रहे हैं।
अन्य क्षेत्रीय भाषाओं की भावनाओं का असर
जब भी हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा देने की कोशिश की गयी उसका व्यापक राजनैतिक विरोध किया गया क्योंकि क्षेत्रीय भाषा एक संवेदनशील मुद्दा है और लोगों की भावनाओं से जुड़ा हुआ है। हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिये इसकी स्वीकार्यता को बढ़ाना होगा।
हिन्दी के समक्ष राष्ट्रभाषा के रूप में संभावनायें –
इन सब चुनौतियों के बावजूद कई सारी परिस्थितियाँ हैं,जो हिन्दी को एक राष्ट्रभाषा के रूप में आगे भी बढ़ा रही हैं।
मीडिया एवं फिल्मों द्वारा प्रोत्साहन –
देशव्यापी इलैक्ट्रानिक मीडिया के विस्तार ने हिन्दी को देश के कोने-कोने में आसानी से पहुँचा दिया है और उसकी व्यक्तिगत स्वीकार्यता को बढ़ाने का काम किया है। बालीवुड़ फिल्मों की बढ़ती हुई लोकप्रियता ने हिन्दी को लोकप्रिय बनाने में एक महत्वपूर्ण योगदान किया है। हिन्दी फिल्में आजकल दक्षिणी राज्यों में भी काफी लोकप्रिय होती जा रही हैं, जो अब दक्षिणी संस्कृति, भाषाओं, कलाकारों एवं कहानियों को साथ में अपना रही हैं जिससे इनकी स्वीकार्यता बढ़ रही है।
इंटर्नेट तकनीकि द्वारा प्रोत्साहन –
यू.टी.एफ. एनकोडिंग के उपयोग से हिन्दी एवं अन्य क्षेत्रीय भाषायें आसानी से इंटरनेट में अधिकाधिक उपयोग में लायीं जा रहीं हैं। इसकी वजह से कंप्यूटरों एवं नवीनतम स्मार्ट मोबाइलों में भी हिन्दी का उपयोग बढ़ रहा है और युवा वर्ग हिन्दी को एक नये रूप में उपयोग कर रहा है। ब्लाँग, फेसबुक, ट्वीटर इत्यादि इंटरनेट द्वारा दिये गये ऐसे उपकरण हैं जो हिन्दी के उपयोग को नये कलेवर से प्रोत्साहित कर रहे हैं। फेसबुक, गूगल आदि कंपनियाँ भारतीय उपभोक्ताओं में अपनी पैठ बढाने के लिये कई सारी सेवायें हिन्दी सहित अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में प्रदान कर रहीं हैं।
आर्थिक विकास द्वारा प्रोत्साहन –
देश का युवा अब राजीतिक मुद्दों से ऊपर उठकर रोजगार एवं आर्थिक विकास को अधिक प्राथमिकता देता है। दक्षिणी राज्यों में इस वजह से हिन्दी को अधिक स्वीकार्यता मिल रही है क्योंकि हिन्दी देश की सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है। हाल ही में यह पाया गया कि चेन्नई में छात्र हिन्दी विषय की माँग कर रहें हैं। कई दक्षिणी राज्यों में हिन्दी को तीसरी भाषा के रूपमें पढ़ाया जा रहा है जिसके लिए छात्रों में विशेष उत्साह रहता है।
निष्कर्षः-
हिन्दी को राष्ट्रभाषा के स्वरूप में अपनाने के लिए जहाँ कई चुनौतियाँ हैं तो वहीं कई अच्छी संभावनायें भी हैं। जरूरत है कि हिन्दी की स्वीकार्यता को बढ़ाया जाये इसके लिए निम्नलिखित कदम उठाये जा सकते हैं –
- कोई भी भाषा स्थिर नहीं रह सकती है। निरंतर प्रगति एवं विकास ही भाषा को स्वस्थ एवं जीवित रखती है और उसके लिये अन्य भाषाओं, संस्कृतियों से आदान-प्रदान अत्यंत आवश्यक है। इसलिए हिन्दी को अपने शब्दकोश को अंग्रेजी, कन्नड़, तमिल आदि क्षेत्रीय भाषाओं की सहायता से विस्तारित करना चाहिये जैसे आक्सफोर्ड का शब्दकोश लोकप्रिय लोक शब्दों को अपनाता है चाहें वह किसी भी भाषा के क्यों न हों। इससे हिन्दी की कठिनता को कम करने व इसका प्रयोग नयें क्षेत्रों व भू-भागों में बढ़ावा देने में सहायता मिलेगी।
- जहाँ हम हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में देखना चाहते हैं, वहीं हमें क्षेत्रीय भाषाओं को भी समान बढ़ावा देना चाहिए। यह एक चिंताजनक विषय है कि संविधान द्वारा अनुमोदित “त्रिभाषीय सूत्र” अधिकांश हिन्दी भाषीय राज्यों व अन्य राज्यों में ढंग से लागू नहीं किया जा रहा है। अधिकाधिक हिन्दी भाषियों को अन्य क्षेत्रीय भाषाओं जैसे कि कन्नड, गुजराती, तमिल आदि भाषाओं को सीखना चाहिए। इसके लिये शिक्षा प्रणाली में व्यापक सुधार कर त्रिभाषीय सूत्र को कड़े रूप से लागू करने की आवश्यकता है।
- हिन्दी को विज्ञान-तकनीकी, इंटरनेट के नये साधनोंसे प्रोत्साहित करने की जरूरत है। जिससे इसके उपयोग करने में युवा वर्ग को आगे लाया जा सके । “हिंगलिश” को एक तिरस्कार की दृष्टि से नहीं परंतु एक अवसर के रूप में देखना चाहिये जो हिन्दी को सरल बनाती है, उसको उपयोगी बनाती है वहीं दूसरे ओर युवा वर्ग को आकर्षित भी करती है। हिंगलिश-हिन्दी एवं अंग्रेजी की मिश्रित भाषा अगर देवनागरी लिपि में उपयोग की जाये तो यह कोई बुराई नहीं बल्कि यह एक नये साहित्य एवं रचनात्मकता को जन्म देगी।
अंततः हमें यह समझना चाहिये कि राष्ट्रभाषा लोगों पर थोपने से नहीं हो सकती बल्कि एक जन-आंदोलन के रूप में स्वयं ही उत्पन्न होनी चाहिये। अगर हम हिन्दी को एक सरल, उपयोगी प्रगतिवादी, लोकप्रिय, लचीली एवं निरंतर अपने आपको एक नए कलेवर के रूप में गढ़ने वाली भाषा के रूप में ढाल सकें तो आशा है कि वह जल्द ही राष्ट्रभाषा के रूप में सभी को स्वीकार्य होगी।